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कभी सोचता हूँ

क्यूँ दिल और दिमाग़ की जंग सी छिड़ी रहती है ।
क्यूँ फिर भी एक आस सी बंधी रहती है ।
क्यूँ नहीं समझ पाते हम रिश्तों को ।
क्यूँ दरमियान एक दीवार सी खड़ी रहती है।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ मिलते हैं लोग और मिल के बिछड़ जाते हैं ।
क्यूँ सजते हैं ख़्वाब और बिखर जाते हैं ।
क्यूँ मंज़िल नहीं मिलती ।
क्यूँ पहुँच के भी मंज़िल पे भटक जाते हैं ।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ सरहदें हैं क्यूँ हैं दूरियाँ ।
क्यूँ नहीं सिर्फ़ प्यार ज़ुबां बन जाती सारे जहाँ की ।
क्यूँ जीतना है सभी को ।
क्यूँ दुश्मनी निभानी है ।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ नहीं सब दिल खिल के जी पाते ।
क्यूँ नहीं इस मौसम फ़िज़ा हवा हरियाली नदी पहाड़ों को लिपट मुस्कुराते ।
क्यूँ नहीं हम यह राज़ जान पाते ।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ खुश नहीं रह पाते हम सब हरदम ।
किस का इंतज़ार है कैसी उम्मीद है ।
कैसी चाह है कैसा दीवानापन्न ।
क्यूँ ख्वाहिशें कभी कम नहीं होतीं ।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ बच्चों सा नहीं रहता चित्त हमारा सदा ।
क्यूँ दे के चुनौतियाँ हमें हांकता रहता है ख़ुदा ।
क्यूँ मझधार में कोई थाम लेता है और हो जाता है जुदा ।
क्यूँ बंधा के उम्मीद कोई दे जाता है दग़ा ।
कभी सोचता हूँ …..

क्यूँ बना के इंसान दे दिये सुख़ और दुख झेलने को ।
क्यूँ किसी को सब कुछ दे दिया और किसी को कुछ भी नहीं ।
किस दौड़ में भाग रहें हैं सब ।
कब थमेगी यह झूठी होड़ ।
कभी सोचता हूँ …..