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क़िस्सा

आओ एक कहानी सुनाऊँ अपने दिल की बताऊँ
बचपन का चंचल मन था और इक भोलापन था
सब अच्छा लगता था सब सच्चा लगता था
वक़्त कटता नहीं उड़ जाता था पंख लगा के
नींद आती थी कि बेहोश हो गये हों जैसे
खाना पढ़ना खेलना हँसना बिगड़ना संभलना
ज़िंदगी एक बेहद हसीन ख़्वाब सी थी
पटरी पे दौड़ती एक रेल बेपरवाह सी थी
फिर एक दिन लगा कुछ बदल सा गया थोड़ा
माँ बाप की बंधी उम्मीद मुझसे कुछ इच्छाएँ जगी
उनके इस बदलाव ने मुझे हिलाया कुछ झिंझोड़ा
मैं भी संभल गया नादानी छोड़ थोड़ा आगे बढ़ गया
खेल कूद कुछ कम कर पढ़ाई की और ध्यान बढ़ा
समझ आने लगा जीवन पहली बार थोड़ा डर लगा
घर के ज़रूरी फ़ैसलों में अब मेरा भी योगदान था
ख़ुद को भी मैं कुछ परिपक्व थोड़ा ज़िम्मेदार लगा
इसके बाद ज़िंदगी ने इक बड़ी करवट ली
खेल का मैदान बदला एक नयी पारी शुरू हुई
अब ज़ाहिर हुआ इस ज़िंदगी का असल रंग सही चेहरा
शुरू हुई भागदौड़ एक चुनौती सी प्रकट हुई
सफलता ने गले लगाया खेल में भी खूब मज़ा आया
रिश्ते जुड़े ज़िम्मेदारियाँ बढ़ी सभी ने अपना हक़ जताया
इस सब कोलाहल में भी मैंने एक ख़ालीपन सा पाया
भ्रमित हो खोजा अंदर कुछ बाहर भी पता लगाया
ना जानें कब और कैसे इक दिन क़िस्सा ख़ास हुआ
मुझे मेरे अंदर के बदलते मौसमों का एहसास हुआ
बस उस दिन से झोंक दी सारी ताक़त दृढ़निश्चय कर
हर रोज़ एक पहेली सुलझी एक नया आभास हुआ
हर बेचैनी और अशांति का जैसे सही हल मिल गया
मुझे अपने जीवन के उद्देश्य का मानो पता चल गया
बदल गई मंज़िल और दिशा दोनों ही हमेशा के लिए
मेरी ज़िंदगी की कहानी को नया अध्याय मिल गया